एपीजी शिमला विश्वविद्यालय के कैंपस में बैसाखी और हिमाचल दिवस की धूम, छात्र-छात्राओं ने विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक तस्वीरें की प्रस्तुत
शिमला, अप्रैल 13
राजधानी शिमला के एपीजी शिमला विश्वविद्यालय के कैंपस में शुक्रवार को बैसाखी पर्व और हिमाचल दिवस के पूर्व अवसर पर उमंग-2023 कार्यक्रम का आयोजन स्कूल ऑफ साइंसेज की अध्यक्ष डॉ. प्रो. मनिंदर कौर, दीन साइंसेज डॉ. प्रो. रोहिणी धरेला की अगुवाई में किया गया जिसमें एपीजी शिमला विश्वविद्यालय में पढ़ रहे हिमाचल प्रदेश, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों ने साझेदारी का सबूत देते हुए एक दूसरे के संस्कृतिक पृष्ठभूमि का अदान प्रदान किया। इस दौरान पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, ओडिशा, बिहार, उत्तराखंड, दिल्ली, चंडीगढ़, गुजरात, चेनई, जम्मू और कश्मीर तथा गोवा आदि राज्यों के साथ संबंधित विद्यार्थियों ने एपीजी शिमला विश्वविद्यालय के कैंपस और सभागार में अपने-अपने राज्य और क्षेत्र के संस्कृतिक पृष्ठभूमि को बयान करती झांकियों और सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश कर पूरे भारत के संस्कृतिक पहलू को एक मंच पर एकत्रित किया।
इसके अलावा विद्यार्थियों ने अपने-अपने रिवायती लोकगीतों और लोकनृत्यिों, गीतों, चित्रकला,, हिमाचली संस्कृति, हिमाचली नाटी,, राजस्थानी, गुजराती, गरबा, लुड्डी और गिद्दा, भंगड़ा और अन्य प्रस्तुतीकरण के साथ कैंपस को बैसाखी के रंग में रंग दिया। इस अवसर पर विभिन्न राज्यों, पडोसी देशों और विदेशी छात्र-छात्राओं ने अपनी-अपनी संस्कृति से संबंधित पारंपरिक वेशभूषा में सज्ज -धजकर रंगोली प्रतियोगिता में भाग लिया और पारंपरिक व्यंजनों का प्रस्तुतिकरण भी किया। मलावी देश के छात्र-छात्राओं ने अपनी अनूठी संस्कृति का प्रदर्शन कर भारतीय संस्कृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर कार्यक्रम में उपस्थित सभी दर्शकों, प्राधापकों और गणमान्य लोगों को सराबोर कर दिया।
इस विरासती पर्व का उद्धघाटन एपीजी शिमला विश्वविद्यालय के प्रो- चांसलर प्रो. डॉ. रमेश चौहान और चांसलर पूर्व में रहे इंजीनियर-इन-चीफ सुमन विक्रांत ने किया। उल्लेखनीय है कि एपीजी शिमला विश्वविद्यालय में मौजूदा समय दौरान भारत के 29 राज्यों और विश्व के 30 देशें के विद्यार्थी शिक्षा हासिल कर रहे हैं।
एपीजी शिमला विश्वविद्यालय के प्रो-चांसलर प्रो. डॉ. रमेश चौहान ने इस मौके सर्व-साझेदारी के प्रतीक बैसाखी के दिहाड़े विद्यार्थियों और प्राधापकों, गैर-शिक्षक वर्ग, विश्वविद्यालय के प्रबंधन और प्रसासनिक अधिकारियों को बधाई देते हुए कहा कि समूचे भारत में आज के दिवस को गेहूं व रबी की फसल की आमद की खुशी में अलग अलग नाम पर मनाया जाता है। यह त्योहार हमें भाई-चारे की समझ, विभिन्नता में एकता, राष्ट्रप्रेम और आपसी मोहब्बत का संदेश देते हैं। प्रो. डॉ. रमेश चौहान ने कहा कि 15 अप्रैल, 1948 को पहाड़ी रियासतों को भारतीय संघ में विलय हुआ था और लंबे संघर्ष के बाद यह हिमालयन क्षेत्र अस्तित्व में आया और यहां के लोगों को उनकी संस्कृति, संघर्ष भरी कहानी को भारत के पन्नों में स्थान मिला।
एपीजी शिमला विश्वविद्यालय के चांसलर सुमन विक्रांत (पूर्व इंजीनियर-इन-चीफ) ने इस त्योहार को लेकर अपने विचार साझा किए। उन्होंने कहा कि भारत अनेकता में एकता का सर्वोत्तम उदाहरण है, जो हजारों वर्षों से पूरे विश्व को एकता का सन्देश देता आ रहा है। भारत सिर्फ एक शब्द नहीं बल्कि हर भारतीय की आत्मा है जो उन्हें एकता के सूत्र में बांधता है। जिसकी शान के लिए लोग अपना सब कुछ कुर्बान करने को तैयार हैं, जिसकी आजादी के लिए करोड़ों लोगों ने खून की नदियां बहाई हैं, इसमें अनेक जातियों, धर्मों, पंथों, भाषाओं, संस्कृतियों, सभ्यताओं के लोग रहते हैं, जिनके रंग, रूप, पहनावे हैं बोलियां भले ही अलग हों, लेकिन उनकी पहचान एक भारतीय की है।यहाँ दिवाली, ईद, होली, क्रिसमस, बैसाखी किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है।
प्रो-चांसलर प्रो. डॉ. रमेश चौहान ने छात्र-छात्राओं को संबोधित करते हुए कहा कि भारत में कुछ त्यौहार ऋतुओं और मौसमों से जुड़े है तो कुछ सांस्कृतिक परंपराओं और घटनाओं से, लेकिन बैसाख पर्व का सम्बन्ध हमारी कृषि तथा भारत के अन्नदाताओं से है। भारत एक ऐसा देश जहाँ हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख़ुशी को मनाने के लिए त्यौहार मनाये जाते है। भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी आत्मा गाँवों में बसती है। भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ किसान धरती को माता का सम्मान देते है। किसान अपना खून पसीना एक कर अनाज उगाता है और यह त्यौहार सम्पूर्ण भारत के किसानों के लिए खुशी और उत्साह लाता है, यह वर्ष का वह दिन है जब हमें भारत की विविध संस्कृतियों की सुन्दर झलक देखने को मिलती है। बैसाखी का मुख्य कारण तैयार फसलों की कटाई होती है। नए साल की पहली फसल को देख किसान फूले नहीं समाते है। देश भर के किसान बैसाखी, बोहाग बिहू, विशु, पोइला बोसाख और पुथंडू जैसे त्योहारों को बड़े जोश और उत्साह के साथ मनाकर अपनी खुशी जाहिर करते हैं। भारत के लगभग हर राज्य में किसान अपनी फसलों के साथ-साथ अपने देवी-देवताओं की पूजा करते हुए अपने-अपने लोक नृत्यों के माध्यम से अपनी खुशी व्यक्त करते हैं। पिछले कुछ दशकों के दौरान कृषि के पतन के बाद, वर्तमान सरकार कृषि को एक लाभदायक व्यवसाय बनाने के लिए कृषि में निवेश कर रही है और कृषि के विकास के लिए कई नए कार्यक्रम एवं योजनाएँ लेकर आई है।
चांसलर सुमन विक्रांत ने छात्र-छात्राओं को संबोधित किया कि यदि पंजाब के ऐतिहासिक और धार्मिक संदर्भ में बैसाख पर्व की चर्चा की जाए तो बैसाखी और सिख धर्म का अनोखा एवं अटूट सम्बन्ध है। बैसाखी सिख इतिहास का एक ऐसा पन्ना है जिनका महत्व समस्त संसार जानता है। 13 अप्रैल 1699 को खालसा का सृजन एक ऐसी ही क्रांतिकारी घटना है। 1699 में, सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की थी । खालसा का अर्थ होता है शुद्ध, अर्थात वह व्यक्ति या सत्ता जो पूरी तरह से पवित्र हो जो लूट और अत्याचार से मुक्त हो। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना अत्याचार के खिलाफ लड़ने और समाज में बढ़ते जातिगत मतभेदों को मिटाकर लोगों को एकजुट करने के उद्देश्य से की थी। दसवें पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने पाँच प्यारों, जो भारत के विभिन्न राज्यों, धर्मों और जातियों से सम्बन्ध रखते थे, को अमृत पान करवाया तथा स्वयं भी अमृत पान किया। गुरुगोबिंद सिंह जी ने सिखों ने पाँच प्यारों को “सिंह” कह कर सम्बोधित किया और सच्ची लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की स्थापना की। इसी खालसा सेना ने गुरिल्ला युद्ध रणनीति से मुगल साम्राज्य की नींव हिला कर ईंट से ईंट बजा दी थी।
वहीं इस अवसर पर विभागाध्यक्ष डॉ. मनिंदर कौर और डीन रोहिणी धरेला ने बैसाखी पर्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सिख इतिहास में ‘गुरु दा लंगर’ की स्थापना भी इसी दिन हुई थी। वैसे तो लंगर प्रथा की शुरुआत गुरु नानक देव जी ने की थी, लेकिन इसे सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म का एक अनिवार्य अंग बना दियाथा क्योंकि उस समय जाति के नाम पर भेद भाव हो रहा था, ऊंची जातियाँ नीची जाति के साथ भेदभाव करती थीं, इस छुआछूत को समाप्त करने के लिए उन्होंने 1539 में बैसाखी के दिन ‘संगत-पंगत-लंगर’ प्रथा शुरू करने की घोषणा की। आज सिख धर्म में लंगर का बड़ा महत्व है। पंजाब में हर जगह बैसाखी के मेले लगते हैं और उन मेलों में अटूट लंगर चलाया जाता है। खुशी के मौकों पर ही नहीं, भारत अथवा विदेश में जब भी, कहीं भी, किसी भी तरह की विपदा आती है तो सिख बिना किसी जाति, धर्म, भाषा, रंग के भेदभाव के हर जगह लंगर की सेवा प्रदान करते हैं। क्योंकि गुरुओं साहिबानों ने सेवा को सर्वोच्च धर्म माना है, जिसका पालन हर सिख पूरी निष्ठां से करता है। जलियांवाले बाग में घटित नरसंहार, ब्रिटिश साम्राज्य और गुलामी के खिलाफ भारतीयों के साझा संघर्ष का प्रतीक है। रॉल्ट एक्ट जैसे काले कानूनों के खिलाफ एकजुट होकर सभी धर्मों के हज़ारों निहत्थे लोगों ने श्री अमृतसर साहिब की पवित्र भूमि पर जुल्म के खिलाफ अपना खून बहाया था। जलियांवाला बाग की घटना उत्पीड़न के खिलाफ उस आम लड़ाई का प्रतीक है जिसने करतार सिंह सराभा, उधम सिंह और भगत सिंह जैसे शहीदों को आज़ादी के लिए लड़ने की प्रेरणा दी।
छात्रों ने अपनी रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से प्रस्तुत किया कि बोहाग बिहू बैसाख महीने के पहले दिन असम, मणिपुर, बंगाल, नेपाल, उड़ीसा, केरल और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। बोहाग बिहू के दिन किसान अपनी तैयार फसलों की कटाई शुरू करते हैं, अपनी फसलों और पशुओं की पूजा करते हैं तथा अपने देवताओं और बड़ों की पूजा-अर्चना करते है। इस शुभ अवसर पर वे आम, चिरा और पीठा जैसे विभिन्न व्यंजन तैयार करते हैं। इस दिन महिलाएं, पुरुष और बच्चें नाचते-गाते, दावत करते है तथा उपहारों का आदान-प्रदान करते है। अपने बड़ों से आशीर्वाद लेना, नए कपड़े पहनना और पारंपरिक बिहू नृत्य करना बोहाग बिहू की मुख्य विशेषता है। केरल और कर्नाटक में इसे ‘विशु’ या ‘चिथिराई’ के रूप में मनाया जाता है। विशु को केरल में वसंत और फसल के मौसम की शुरुआत के रूप में मनाया जाता है। इसमें भगवान कृष्ण की नरकासुर पर विजय को भी दर्शाया गया है। विशु की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक विशु कनिका दर्शन है। इस त्योहार को देखने और मनाने वाले लोग सुबह सबसे पहले विशु कनि के दर्शन करते हैं। केरलवासियों का मानना है कि विशु कनि के केवल दर्शन मात्र से उनका पूरा साल खुशियों एवं सौभाग्य से भर जायेगा । कर्नाटक की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, हिंदू धर्म के तीन सर्वोच्च देवताओं में से एक और संपूर्ण ब्रह्मांड के निर्माता, भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन दुनिया का निर्माण किया था। बंगाली कैलेंडर के अनुसार इस दिन पोइला बोसाख पर्व मनाया जाता है। इस दिन बंगाली पिछले साल की फसल की कटाई और नए साल में आने वाली फसल के लिए ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। यह बंगाली व्यापार के लिए भी एक महत्वपूर्ण दिन है, क्योंकि इस दिन व्यापारी नए बही खाते खोलकर नए लेखा वर्ष की शुरुआत करते हैं। इस दिन ओडिशा के लोगभी अपना नववर्ष मनाते हैं, इसे महा बिशुव संक्रांति या पाना संक्रांति कहते हैं। यह पर्व शिव, शक्ति या हनुमान मंदिरों में पूजा-अर्चना कर मनाया जाता है।
विभागाध्यक्ष डॉ. मनिंदर कौर और डीन डॉ. रोहिणी धरेला ने कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए विशेषकर स्कूल ऑफ साइंसेज की फैकल्टी और छात्र-छात्राओं का धन्यवाद किया।

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